"अकड़ छोड़ दे इंसान"

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रणजीत टाइम्स – विशेष संपादकीय कविता

 


✍️ संपादक – गोपाल गावंडे

 

यह शरीर भी एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा,
तू क्यों बैठा है यूँ अकड़ में, क्या साथ कुछ जाएगा?

पैसा, दौलत, शोहरत – सब यहीं छूट जाएगा,
तेरे संग तो बस तेरे कर्मों का लेखा जाएगा।

रिश्ते-नाते, माँ-पिता, वो प्यार जताने वाले,
सबसे मुँह मोड़ तू बन बैठा है खुद को खुदा कहने वाले।

तुझे भी है मालूम, क्या होगा तेरा अंत,
तो क्यों नहीं अभी से बन जाता तू सच्चा संत?

मत दौड़ इस जीवन में केवल दिखावे की दौड़ में,
मत उलझ सांसों को तू ज़िद और होड़ में।

जिसे तू ठुकरा रहा है मोह और घमंड के पीछे,
वो ही तुझे रोएगा सच्चे आंसुओं से पीछे।

छोड़ दे यह झूठी शान, यह नकली अभिमान,
बना ले इंसानियत को अपना असली पहचान।


अंत में न रहेगी तेरी जात, न पद, न ओहदा बड़ा,
तेरे कर्म ही बोलेंगे, जब ये संसार तुझसे होगा जुदा।
कुछ ऐसा कर कि मरकर भी नाम ज़िंदा रहे,
तेरी यादों में प्रेम, सेवा और मानवता का इरादा रहे।


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"सत्य, सेवा और संस्कार ही हैं असली विरासत। इसलिए अकड़ छोड़, विनम्र बन – यही है जीवन की सबसे बड़ी जीत।"

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