सेवा और समर्पण की सर्वोपरि सीख: महाकुम्भ

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हिन्दू परंपरा की चेतना में गहराई से समाया तीर्थ राज प्रयाग आस्था के अनुष्ठान और ईश्वर की खोज के साथ मौन सेवा और समर्पण का सर्वोपरि उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है।  
    प्रयाग में सन्तों के लगभग हजार शिविर लगे हुए हैं। भव्य शिविर! कई सौ लोगों के ठहरने लायक, भोजन आवास की अच्छी सुविधा के साथ... कुछ छोटे शिविर हैं, कुछ बड़े, कुछ बहुत बड़े... सबको जोड़ लें तो लाखों लोगों को भोजन आवास की सुविधा मिली हुई है। इन सभी शिविरों में अन्नक्षेत्र चलते हैं। निःशुल्क! अच्छा और स्वादिष्ट भोजन यहाँ उपलब्ध कराया जा रहा है । सारे शिविरों में प्रतिदिन प्रसाद पाने वालों की संख्या जोड़ लें तो कई लाख में जाएगी। यह मेले में सन्तों की ओर से सेवा है।  बिना किसी  आडम्बर प्रचार दिखावे या हो-हल्ला के, बिना पब्लिसिटी के यह सेवा चुपचाप चल रही है।
     ऐसा नहीं कि सारे शिविर संतों के ही हों। कथावाचकों के, धार्मिक संगठनों के, संस्थाओं के शिविर भी हैं ।इन्हें चलाने वाले वैरागी भी हैं, गृहस्थ भी। मेला शुरू होने के दो महीने पहले से तैयारियों में लगे हैं वे लोग! और पूरे मेले के लिए जैसे वहीं बस ही गए हैं। 
       जिस भीड़ में हमारे आपके लिए पाँच किलोमीटर चलना कठिन हो रहा है, उसी भीड़ में वे दस किलोमीटर चल कर दूध लाते हैं कि लोगों को चाय पिला सकें। उसी भीड़ और जाम में घण्टों फँस कर वे हरी सब्जी लाते हैं ताकि तीर्थ यात्रियों को प्रसाद उपलब्ध करा सकें। इसके बाद वे रात को तीन बजे तक जागते भी हैं क्योंकि रात बिरात पहुँचने वाले परिचितों के लिए व्यवस्था भी बनानी है, भोजन भी कराना है।
        इनके खर्च की सोच कर हम जैसे सामान्य गृहस्थों का होश उड़ जाता है। विचलित हो कर पूछ बैठते हैं कि - इतना पैसा कहाँ से आया होगा रे? और फिर अपने मन की कलुषता को कालिख से ही पोंछते हुए उत्तर भी सोच लेते हैं- "अरे जरूर किसी बड़े सेठ साहूकार नेता मंत्री से लेते होंगे ये लोग! वरना इतना धन कहाँ से आएगा भला!" क्या कहें, अपने बड़ों पर अविश्वास करने की लत जो लग गयी है हमें! परमार्थ की जगह स्वार्थ ही स्वार्थ देखा है हमने तो हर जगह ।
      परंतु सत्य यह  है कि छोटे बड़े अनेक शिविरों के व्यवस्थापक  लगभग नित्य ही आग्रह करते हुए देखे जाते हैं यहाँ तक कि  अपने वॉट्सएप फेसबुक प्रोफाइल से लिखते हैं कि "आइये! हमारे शिविर में स्थान कम हो सकता है, पर हृदय में बहुत स्थान है। रहिये, प्रसाद पाइए, गङ्गा नहाइये..."
       यही अधिकांश शिविरों, संघठनों, सन्तों का स्वर है, यही सनातन का मूल स्वर है। सभी अपने सामर्थ्य से अधिक सेवा कर रहे हैं। हाथ जोड़े, सर झुकाए…
कहीं लीक से हट कर अनुपम उदाहरण भी मिल जाएँगे जैसे ट्रैफिक जाम में फँसे तीर्थ यात्रियों को स्थानीय शहरी व ग्रामीण लोग सामर्थ्य के अनुसार सुविधा देने में जुटे हैं और तो और घर के विवाह समारोह में बने हुए भोजन और पानी के टैंकर  को तीर्थ यात्रियों की सेवा में प्रस्तुत करने वाले दिलदार गृहस्थ भी देखे गए हैं। ये पुण्य की बहती  गंगा में हाथ धोने वाले सच्चे समाज सेवी हैं। 
      यह भी सच है कि करोड़ों की भीड़ में सबके लिए व्यवस्था नहीं हो सकती, पर जितनी हो सकती है उतनी व्यवस्था हुई है। यह सुखद है।
      तमाम मीडियाई नकारात्मकता के बाद भी ऐसी हर तीर्थ यात्रा सन्तों के प्रति  श्रद्धा बढ़ा देती है। धर्म पर  भरोसा बढ़ जाता है, अपनी धार्मिक व्यवस्था पर विश्वास बढ़ जाता है।
       संसार चाहे तो बहुत कुछ सीख सकता है सनातन व्यवस्था से। सेवा चुपचाप कैसे की जाती है, यह तो जरूर ही सीख लेना चाहिये। क्रोसीन बांट कर भारत का सर्वोच्च सम्मान लेने वाले तो जरूर ही सीखें।

डॉ आरती दुबे 
साहित्यकार एवं शिक्षाविद्
drarteedubey@gmail.com 

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