"एक थाली का सच"

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एक गांव में एक बुज़ुर्ग दादा जी अपने बेटे, बहू और पोते के साथ रहते थे। उम्र बढ़ने के साथ दादा जी थोड़ा असहज हो गए थे – हाथ कांपते थे, खाना गिर जाता था।
बहू रोज ताने देती –
"पापा जी हर जगह गंदगी फैला देते हैं!"
बेटा भी चुप रहता।
एक दिन बहू ने लकड़ी की एक पुरानी थाली दादा जी के लिए अलग कर दी। अब वो अलग बैठकर उसी थाली में खाना खाते।
पोता अर्जुन ये सब चुपचाप देखता रहा।
कुछ दिनों बाद अर्जुन लकड़ी के टुकड़ों से कुछ बनाने लगा।
पिता ने पूछा –
"क्या बना रहे हो बेटा?"
अर्जुन बोला –
"पापा, आपके लिए थाली बना रहा हूँ… जब आप बूढ़े हो जाओगे!"
यह सुनकर बेटे और बहू को गहरा झटका लगा।
उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ। उसी दिन से उन्होंने दादा जी को फिर से अपने साथ बिठाकर प्रेम से खाना खिलाना शुरू किया।


सीख (Moral):
"परिवार का असली प्यार तभी दिखता है जब हम बुज़ुर्गों का सम्मान करें।
जैसा हम करेंगे, बच्चे वही सीखेंगे!"

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