प्रत्येक सहजयोगी साधक गुरु कृपा से आत्मसाक्षात्कार व गुरु पद का अधिकारी होता है

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गुरु पूर्णिमा विशेष


सहज योग प्रणेता  परमपूज्य श्री माताजी निर्मला देवी कहती हैं कि, "मनुष्य की उत्क्रांति का आरंभ नाभि से होता है जो भवसागर से घिरा हुआ  है‌।" भवसागर में दस गुरुओं का स्थान है।  सच्चे गुरु ही भक्त का ईश्वर से मिलन का योग घटित करते हैं।  ईश्वर से योग घटित होने के लिए साधक को भवसागर तरना यानि पार करना पड़ता है।  सद्गुरु ही वह प्रकाश है जो  अज्ञान के अंधकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश दे भक्त को ईश्वर के साम्राज्य में प्रवेश कराता है। 
हमारे शरीर में भवसागर का एक संसार है जिसमें जन्म मृत्यु का चक्र चलता रहता है।  यह एक ऐसा महासागर है जिसमें धर्म के साथ मोह, माया, अहंकार रुपी अज्ञान का जाल भी फैला हुआ है।  सहज योग में कुंडलिनी जागरण के बाद जब कुंडलिनी शक्ति उपर की ओर उठती है, तब सभी चक्रों को निरंजित करती जाती है। इसी  क्रम में बड़ी सहजता से साधक को  भवसागर से पार करा देती है।  भवसागर में दस धर्म और दस गुरु हैं, वे दस गुरु हैं - राजा जनक, अब्राहम, मौजिज, जोराष्ट्र्, लाओत्से, कन्फ्यूशियस, सुकरात, मोहम्मद साहब, गुरूनानक व शिर्डी के साईनाथ। 
हम भवसागर को पार कर ईश्वर के साम्राज्य में प्रवेश कर व परमात्मा से एकाकारिता प्राप्त कर पूर्णतया प्रकाशित हो जाते हैं। हमारे सहस्त्रार से ही ईश्वर का साम्राज्य शुरु होता है।  मानव शरीर में  गुरु का स्थान  भवसागर के चारों ओर है लेकिन इसी भवसागर के मध्य में गुरु का स्थान रिक्त था।  संभवतः प्राचीन काल में कोई गुरु ही इस रिक्तता को दूर कर सकता था।  परमपूज्य श्री माताजी निर्मला देवी की कृपा से सहज योग के साधक इस रिक्तता को दूर कर पाते हैं क्योंकि कुंडलिनी के भवसागर को पार करने का मार्ग हमारे मध्य नाड़ी सुषुम्ना से होकर जाता है, फलस्वरूप सहज योगी साधक स्वयं अपना गुरु बन जाता है।  केवल सहज योगी साधक ही इस गुरु पद को प्राप्त करता है।  यहाँ कोई सहजी साधक अन्य किसी का गुरु बनने का प्रयास नहीं करता है, बस सभी अपने स्वयं के गुरु बनें इसके लिए प्रयासरत रहते हैं।   परमपूज्य श्री माताजी को सहजी साधक गुरु नहीं श्री माताजी कहते हैं क्योंकि  वे आदिशक्ति हैं और असंख्य गुरुओं की जननी भी है। भवसागर तरने का मार्ग सुषुम्ना नाड़ी है और आत्मसाक्षात्कार व संतुलन‌ पाने‌ के बाद जब साधक चैतन्य लहरियों का आनंद लेना शुरू कर देता है तब दूसरों को भी संतुलित करना उसकी जिम्मेदारी हो जाती है।   जलवायु, प्रकृति, वातावरण, समाज और मनुष्यों को संतुलित करने की जिम्मेदारी प्रत्येक साधक की होती है।   यह संतुलित होने व करने का भाव ही गुरुत्व है।  साधक में संतुलन आना जरुरी है ताकि वह सहज योग का एक सशक्त माध्यम बन सके। 
श्री माताजी कहती हैं,"स्वभाव से गुरु (सहजयोग साधक) तपस्वी नहीं होता है।  परंतु निर्लिप्तता के कारण वह तपस्वी सम होता है।"  सहजयोग में राजा हो या भिखारी सभी गुरु स्थान पाते हैं और पूर्ण संतुलन में रहते हैं।   सहज योगी साधक ध्यान के माध्यम से प्रलोभन, लालच और वासना से परे अवस्था तक पहुँच जाता है।  कोई भी चीज उसे पतन की ओर नहीं ले जा सकती।  वे चाहे तुलसी की माला पहने या हीरे मोती की सब उनके लिए एक है। 
सभी सहजी साधक स्वयं के गुरु हैं पर वे अपनी इस महत्ता को समझ नहीं पाते हैं।   कारण गुरु एक उच्च पद है और वे उस पद तक पहुँच गये हैं यह विश्वास करना आसान नहीं होता।  मानने में समय लगता है पर धीरे धीरे सहजी को अपने गुरु पद का आभास होने लगता है।  अपनी शक्तियों को वे जानने लगते हैं।  चैतन्य लहरियों से ही उन्हें यह आभास मिलता है कि वे गुरु पद पा चुके हैं व अपने प्रकाश से अन्यों को प्रकाशित करने को तैयार हैं। 
स्वयं का गुरु बनने व आत्म साक्षात्कार प्राप्त करने हेतु अपने नज़दीकी सहजयोग ध्यान केंद्र की जानकारी टोल फ्री नंबर 1800 2700 800 से प्राप्त कर सकते हैं।

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