जीवन यज्ञ में स्वाहा से स्वधा की यात्रा ही भवसागर से मुक्ति है
परमात्मा से भवसागर से पार कराने की विनती हम अक्सर भजनों में सुनते रहते हैं। तथा अधिकांश व्यक्ति यह सोचते हैं कि मृत्यु के समय हमें भवसागर को पार कर जाना होगा। परन्तु वास्तविकता यह है कि भवसागर को जीवित जागृत अवस्था में ही पार किया जा सकता है। मनुष्य का शरीर स्वयं में एक संपूर्ण ब्रह्मांड है। हमारे शरीर में अनेक चक्रों, नाड़ियों व कुंडलिनी शक्ति को अत्यंत ही सुंदर व सूक्ष्म तरीके से व्यवस्थित किया गया है। इसमें आत्मा श्री शिव का व कुंडलिनी श्री आदिशक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। ज्ञान के अभाव में हमारी चेतना सांसारिक वस्तुओं व भौतिकता की ओर अधिक आकृष्ट होती है और हम प्रत्येक सांसारिक वस्तु का उपयोग करना चाहते हैं और यही भवसागर में डूबने का कारण है। सहजयोग संस्थापिका श्री माताजी ने वर्णन किया है कि,
श्री कृष्ण ने कहा है कि मानव चेतना नीचे की ओर जाती है और मानव चेतना की जड़ें मस्तिष्क में होती हैं। और जब मनुष्य नीचे की ओर जाने लगता है तो वह परमात्मा के विपरीत दिशा में गति करता है। हम.... भवसागर में पैदा होते हैं.. भवसागर का सार स्वाहा है और उद्देश्य स्वधा है। स्वाहा का अर्थ है सेवन, सभी विषों का सेवन, हर चीज का सेवन। और स्वधा एक है। इसका अर्थ है कि स्व आत्मा है और ध का अर्थ है धारण करने वाला। तो आत्मा का धर्म, जब यह आप में आता है, तब आप गुरु बन जाते हैं। तो भवसागर में, यह स्वाहा और स्वधा दोनों हैं। स्वाहा से आपको स्वधा में जाना होगा। यदि आप स्वधा अवस्था में आ जाते हैं तो आपके भीतर महालक्ष्मी जागृत हो जाती हैं और आप ऊपर उठने लगते हैं। इसे ‘उर्ध्वगति’ कहा जाता है: उत्थान की ओर जाना। अवरोही पक्ष को ‘अधोगति’ कहा जाता है।
आदिशक्ति स्वरूपा श्री माताजी गुरुओं की भी गुरु हैं वे उनके द्वारा स्थापित सहजयोग मानव को भवसागर के पार ले जाने का अत्यंत सुगम मार्ग है। कुंडलिनी जागरण द्वारा आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के पश्चात् आप अपने गुरुत्व के मार्गदर्शन में माया के बंधनों से मुक्त रहकर स्वधा को प्राप्त करने हेतु अग्रसर होते हैं। इतना ही नहीं वरन् आत्म ज्ञान के प्रकाश में कुंडलिनी शक्ति की ऊर्जा द्वारा प्रेममय व करुणामय तरीके से अनेकानेक साधकों को स्वाहा से स्वधा की ओर ले जा कर भवसागर से मुक्ति का मार्ग दिखा सकते हैं। भवसागर से मुक्ति का अर्थ संसार का त्याग नहीं वरन् संसार का उपभोग करते हुऐ सृष्टि की संपदा का आनंद लेते हुए उससे अलिप्त रहना है। यही सहजयोग है।
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