आज़ादी से पहले का भारत – एक पीड़ादायक सच
✍️ संपादकीय:
15 अगस्त 1947 को भारत ने आज़ादी का जो अमूल्य उपहार पाया, उसके पीछे लगभग दो सौ वर्षों का संघर्ष, बलिदान और त्याग छिपा है। इस आज़ादी को समझने के लिए हमें उस दौर में लौटना होगा जब हमारा देश गुलामी की जंजीरों में कैद था।
राजनीतिक स्थिति
अंग्रेज़ी हुकूमत ने भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता छीन ली थी। हमारे अपने राजा-महाराजा या तो उनके अधीनस्थ बन चुके थे या सत्ता से बेदखल कर दिए गए थे। भारत का शासन, कानून और न्याय पूरी तरह ब्रिटिश संसद और वायसराय के आदेशों पर चलता था। भारतीय जनता का अपनी भूमि के शासन में कोई स्थान नहीं था।
आर्थिक शोषण
भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था, लेकिन अंग्रेजों ने इसे गरीबी और भूख का पर्याय बना दिया। कुटीर उद्योग और हस्तशिल्प को योजनाबद्ध तरीके से नष्ट किया गया ताकि इंग्लैंड के कारखानों को बाज़ार मिले।
किसानों से भारी कर वसूले जाते थे। अकाल के समय भी अनाज का निर्यात होता था, जिससे लाखों लोग भूख से मर गए। भारतीय व्यापारियों पर अंग्रेज़ी व्यापारियों को प्राथमिकता दी जाती थी।
सामाजिक व शैक्षिक स्थिति
शिक्षा प्रणाली को अंग्रेज़ी नीतियों ने बदल दिया था। स्थानीय भाषाओं और भारतीय ज्ञान परंपरा को हाशिये पर धकेलकर अंग्रेज़ी माध्यम और पश्चिमी सोच को बढ़ावा दिया गया।
समाज में जाति, धर्म और क्षेत्र के नाम पर विभाजन को हवा दी गई ताकि लोग एकजुट न हो पाएं।
मानसिक गुलामी
गुलामी का सबसे बड़ा असर मानसिकता पर पड़ा। भारतीय अपने ही देश में दूसरे दर्जे के नागरिक बना दिए गए। अंग्रेज़ अधिकारी का आदेश कानून से ऊपर समझा जाता था। आम आदमी में यह भावना बैठा दी गई कि वे शासन करने के योग्य नहीं, केवल आज्ञा पालन करने के लिए बने हैं।
स्वतंत्रता संघर्ष
लेकिन इस अंधकार में भी प्रकाश की किरणें थीं।
1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, 1905 का बंग-भंग आंदोलन, 1920 का असहयोग आंदोलन, 1930 का सविनय अवज्ञा आंदोलन और 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन – ये सब स्वतंत्रता के पथ पर मील के पत्थर बने।
महात्मा गांधी ने सत्याग्रह और अहिंसा का मार्ग दिखाया, तो भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर आज़ाद और नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने क्रांति और बलिदान का मार्ग चुना। लाखों अनाम सेनानियों ने जेलों में यातनाएँ सही, अपनी जान दी, पर आज़ादी की लौ जलाए रखी।
आज़ादी का महत्व
15 अगस्त 1947 को जब तिरंगा लाल किले पर लहराया, तो वह केवल एक झंडा नहीं था, बल्कि करोड़ों बलिदानों, आँसुओं और सपनों का प्रतीक था।
आज हमारे पास अपने संविधान के अनुसार जीने का अधिकार है, अपनी सरकार चुनने का अधिकार है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है – ये सब हमें विरासत में मिले, लेकिन इसके लिए हमारे पूर्वजों ने अपना सर्वस्व न्योछावर किया।
हमारा कर्तव्य
आज़ादी केवल मनाने की वस्तु नहीं, बल्कि इसकी रक्षा और सम्मान करना हमारा नैतिक दायित्व है। भ्रष्टाचार, सामाजिक विभाजन, और अनैतिकता जैसी बुराइयाँ फिर से हमें भीतर से गुलाम बना सकती हैं।
हमें यह याद रखना होगा कि जो आज़ादी रक्त और बलिदान से मिली है, उसे लापरवाही या स्वार्थ से खोना सबसे बड़ा अपराध होगा।
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