राजनीति में रिटायरमेंट की वकालत करने वाले शख्स जाने कौन है
नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा देने के बाद जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ बनाने की घोषणा की तो आरएसएस के सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने उनसे वादा किया कि मैं पार्टी चलाने के लिए आपको 'पाँच सोने के टुकड़े' दूँगा
इस वादे के तहत पाँच आरएसएस नेताओं को नई पार्टी की मदद के लिए भेजा गया. ये नेता थे दीनदयाल उपाध्याय, सुंदर सिंह भंडारी, बापूसाहेब सोहनी, बलराज मधोक और नानाजी देशमुख.
अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी उस समय अनुभवी नेताओं में नहीं गिने जाते थे क्योंकि यह 1950 के दशक की बात है.
नानाजी को भारतीय जनसंघ में उत्तर प्रदेश की ज़िम्मेदारी मिली. उनके प्रयास से उत्तर प्रदेश में भारतीय जनसंघ के विधायकों की संख्या 1957 में 14 बढ़कर 1967 में 100 हो गई.
दूसरे दलों से गठबंधन के लिए पहल
नानाजी देशमुख की पहल से ही जनसंघ ने अपनी नीति में परिवर्तन करते हुए दूसरे दलों से चुनाव पूर्व गठबंधन किए. इसका नतीजा ये रहा कि 1967 के चुनाव के बाद जनसंघ ने संयुक्त विधायक दल का सदस्य बनकर कई राज्यों में सरकार में भागीदारी की.
नानाजी देशमुख का जन्म 11 अक्तूबर, 1916 को महाराष्ट्र के परभणी ज़िले के कडोली गाँव में हुआ था. डॉक्टर हेडगेवार से प्रभावित होकर वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य बने. उनकी पढ़ाई पिलानी के बिड़ला कॉलेज में हुई.
वहाँ पर उन्होने संघ के प्रचार का काम शुरू किया. कॉलेज के संस्थापक घनश्याम दास बिड़ला ने उन्हें भोजन-आवास की सुविधा के अलावा 80 रुपए महीने पर अपना सहयोगी बनाने का प्रस्ताव दिया लेकिन नानाजी ने संघ के काम को प्राथमिकता देते हुए उस प्रस्ताव को नहीं माना.
उन्होंने कभी शादी नहीं की. नानाजी की ख़ासियत थी समाज के विभिन्न वर्ग के लोगों के साथ उनका आत्मीय संपर्क. कूमी कपूर अपनी किताब 'द इमरजेंसी अ पर्सनल हिस्ट्री' में लिखती हैं, "नानाजी को जनसंघ और आरएसएस के सदस्यों के साथ उनके बीबी बच्चों तक के नाम याद थे. उन्होंने विनोबा भावे के भूदान आँदोलन में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था."
जनसंघ के लिए धन इकट्ठा करने में नानाजी देशमुख की बड़ी भूमिका थी.
सत्तर के दशक से ही नानाजी टाटा, मफ़तलाल और नुस्ली वाडिया जैसे उद्योगपतियों के संपर्क में आ गए थे. नुस्ली वाडिया से तो वो साठ के दशक से ही संपर्क में आ गए थे.नुस्ली ने ही उन्हें जेआरडी टाटा से मिलवाया था. नुस्ली वाडिया ने ही सबसे पहले जनसंघ के अख़बार 'मदरलैंड' में 'बॉम्बे डाइंग' के विज्ञापन देने शुरू किए थे."
सन 1974 में हुए बिहार आंदोलन में नानाजी देशमुख की सक्रिय भूमिका थी. उनके संगठनात्मक गुणों को देखते हुए जयप्रकाश नारायण ने उन्हें लोक संघर्ष समिति का सचिव नियुक्त किया.
3 से 5 अक्तूबर, 1974 को बिहार बंद करवाया गया. इस बंद को सफल कराने के लिए नानाजी ने पूरे बिहार का दौरा किया.
सुब्रमण्यम स्वामी का मानना है कि यहाँ से अटल बिहारी वाजपेयी नानाजी देशमुख को अपने प्रतिद्वंदी के रूप में देखने लगे.
नानाजी को वाजपेयी की बिना मेहनत किए सुर्ख़ियाँ बटोरने की प्रवृत्ति नापसंद आने लगी. उन्होंने एक बार कहा भी, 'भीड़ हम लाते हैं, दरी हम बिछाते हैं, सारा श्रेय अटलजी ले जाते हैं.''
जेपी ने चार नवंबर को बिहार विधानसभा के घेराव की घोषणा की. नानाजी को पुलिस ने 30 अक्तूबर को सासाराम में बिहार निष्कासन का आदेश पकड़ा दिया.
"नानाजी डाकिए के वेश में आरएमएस के डिब्बे में पटना पहुंचे और बचते-बचाते गाँधी मैदान में जेपी की छाया की तरह चलने लगे. एक सीआरपीएफ़ के जवान की लाठी जेपी के सिर पर पड़ने ही वाली थी कि नानाजी कूद कर सामने आ गए. उन्होंने लाठी का वार अपने हाथों पर लिया जिससे उनके हाथ की हड्डी टूट गई. लेकिन जेपी बच गए. वो गिर गए. उनका सिर्फ़ पैर ज़ख़्मी हुआ."
25 जून, 1975 को रामलीला मैदान में विपक्षी नेताओं की रैली के बाद जब नानाजी देशमुख अपने घर लौट रहे थे तो उनके पास एक गुमनाम फ़ोन आया.
फ़ोन करने वाले ने उन्हें आगाह किया कि उस रात वो अपने घर पर न सोएं, वर्ना उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाएगा. इससे पहले कि वो और विवरण माँगते फ़ोन करने वाले ने फ़ोन रख दिया
उन्होंने वो रात अपने शिष्य डॉक्टर जेके जैन के वीपी हाउस के फ़्लैट पर बिताई. सुबह-सुबह वो जेपी से मिलने पालम हवाई अड्डे निकल गए जहाँ से जेपी पटना वापस जाने वाले थे.
वहाँ पर एक शख़्स ने नानाजी के पहचान लिया. उसने उनसे पूछा, जेपी को गिरफ़्तार कर लिया गया है. आप को अब तक हिरासत में क्यों नहीं लिया गया? नानाजी तुरंत वीपी हाउस लौटे.
उन्होंने डाक्टर जैन को जगाकर कहा, हमें यहाँ से तुरंत निकलना है.
उसी समय उनके पास मदनलाल खुराना का फ़ोन आया जिन्होंने कहा कि उन्हें तुरंत भूमिगत हो जाना चाहिए. इसके बाद नानाजी देशमुख लगातार घर बदलते रहे और एक स्थान पर एक दिन से अधिक नहीं रुके."
नानाजी देशमुख एक उद्योगपति की दी गई सफ़ेद फ़िएट कार पर पूरे देश में घूम-घूम कर सरकार विरोधी गतिविधियों को हवा देते रहे.
उन्होंने अपना धोती-कुर्ता त्याग कर ढीला सफ़ारी सूट पहनना शुरू कर दिया. उन्होंने अपने सिर के बाल कटवा दिए. अपनी मूछों को काला कर लिया और गोल रिम वाला चश्मा पहनना शुरू कर दिया.
वो कार से दिल्ली से बंबई गए जहाँ उन्होंने अपने पुराने मित्रों से संपर्क किया लेकिन कुछ दिनों बाद नानाजी देशमुख को गिरफ़्तार कर लिया गया.
वो पूरे दो महीने भूमिगत रहे थे लेकिन पकड़े जाने से पहले उन्होंने अंडरग्राउंड नेटवर्क बना दिया था.
देशमुख को पहले तिहाड़ जेल में रखा गया. वहाँ से उन्हें अंबाला जेल ले जाया गया.
सन 1977 में लोकसभा चुनाव की घोषणा के तीन दिन बाद ही जनसंघ, लोकदल, संगठन कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टी का विलय कर जनता पार्टी का गठन किया गया. शुरू में मना करने के बावजूद जयप्रकाश नारायण के आग्रह पर नानाजी देशमुख ने बलरामपुर से चुनाव लड़ा और कांग्रेस की उम्मीदवार और बलरामपुर की रानी को भारी अंतर से पराजित किया.
मोरारजी देसाई नानाजी देशमुख को अपने मंत्रिमंडल में लेना चाहते थे लेकिन नानाजी ने इस पेशकश को अस्वीकार करते हुए मध्य प्रदेश के नेता ब्रजलाल वर्मा को अपनी जगह मंत्री पद के लिए नामांकित करवाया.
जैसे-जैसे जनता पार्टी में सत्ता की लड़ाई बढ़ी, नानाजी देशमुख की खिन्नता बढ़ती गई. इस माहौल से तंग आकर उन्होंने जनता पार्टी के 60 साल की उम्र पार कर चुके नेताओं को राजनीति से अलग होने और युवा नेताओं को सत्ता सौंपने की सलाह दी.
आठ अक्तूबर, 1978 को जेपी की मौजूदगी में पटना में उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा कर दी. जब सन 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई तो उसके मंच पर उनकी अनुपस्थिति को पार्टी में पार्टी में उभर रहे मतभेद के तौर पर देखा गया, हालांकि लालकृष्ण आडवाणी ने इसका ज़ोरदार खंडन किया.
उन्होंने उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित चित्रकूट को अपनी कर्मभूमि बनाया.
वो ग्रामीण शिक्षा स्तर में सुधार लाना चाहते थे इसलिए उन्होंने चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय की स्थापना की. ये भारत का पहला ग्रामीण विश्वविद्यालय था.
स्वाबलंबन,शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास को भी उतना ही महत्व दिया. उन्होंने चित्रकूट ज़िले के गाँवों को मुक़दमेबाज़ी से मुक्त कराने के लिए अनोखी योजना आरंभ की. उन्होंने पीढ़ी-दर-पीढ़ी मुक़मेबाज़ी में फंसे परिवारों को समझा-बुझाकर आपस में बैठकर अदालत से बाहर मामला सुलझाने का अभियान चलाया. उनके प्रयास से करीब 500 गाँव विवादमुक्त श्रेणी में आ गए."
उन्हें सन 1999 में राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया. समाज सेवा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को देखते हुए उन्हें पहले पद्मविभूषण और सन 2019 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया.
दो बार सांसद रहते हुए उन्होंने कभी सरकारी आवास नहीं लिया. उन्होंने हमेशा सांसदों का वेतन बढ़ाए जाने का विरोध किया और जब उन्हें इसमें कामयाबी नहीं मिली तो उन्होंने बढ़ी हुई रकम प्रधानमंत्री सहायता कोष में दान कर दी.
उन्होंने सांसद निधि का पूरा पैसा चित्रकूट के विकास में लगाया. वो जीवन भर लिखने-पढ़ने का काम करते रहे. जब उनकी आँखों ने उनका साथ छोड़ दिया और उन्हें लिखने में परेशानी होनी लगी, तब भी वो बोलकर लिखवाया करते थे.
निधन से पहले उन्होंने हलफ़नामा देकर अपने शरीर को चिकित्सा कार्य के लिए सौंप दिया था.
27 फ़रवरी, 2010 को 93 वर्ष की आयु में उन्होंने इस संसार से विदा ली.
परभणी से मेहबूब शेख की खास रिपोर्ट