पुराने गाँव और आज के शहर : बदलती दुनिया की कहानी

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आज जब हम पुराने गाँवों की याद करते हैं, तो वहाँ की सादगी, प्रेम, मान-सम्मान और आपसी जुड़ाव दिल को छू जाता है। गाँवों में भले ही संसाधनों की कमी हो, लेकिन दिलों में प्यार और एक-दूसरे के लिए खड़े रहने की भावना कभी कम नहीं होती। अगर किसी के घर दुख हो, बीमारी हो, या कोई मुश्किल हो — पूरा गाँव एकजुट होकर मदद के लिए तैयार रहता है। वहाँ दोस्ती सिर्फ सोशल मीडिया की फ्रेंडलिस्ट नहीं, बल्कि असली रिश्तों में बसती है।

इसके उलट, आज के शहरों में ज़िंदगी की रफ्तार बहुत तेज़ हो गई है। लोग भाग-दौड़ में इतने उलझे हैं कि रिश्ते केवल Facebook, WhatsApp और Instagram तक सिमट गए हैं। यहाँ दोस्ती की परिभाषा ‘लाइक’ और ‘कमेन्ट’ में बदल गई है। जब किसी पर असली मुश्किल आती है, लोग वही रुक जाते हैं — ना मदद को आगे आते हैं, ना साथ खड़े होते हैं।

शहरों की लाइफस्टाइल ने इंसान को अकेला कर दिया है। पहले संयुक्त परिवार होते थे, जहाँ एक की समस्या पूरी फैमिली मिलकर हल करती थी। आज लोग अकेले घरों में, बैंक के लोन, ईएमआई, शान-शौकत की ज़रूरतों और करियर की भाग-दौड़ में डूबे हुए हैं। डिप्रेशन, एंग्ज़ायटी जैसी मानसिक बीमारियाँ बढ़ रही हैं, लेकिन दुख की बात ये है कि ऐसे समय में कोई साथ देने वाला नहीं मिलता।

शहरों में अगर कोई रास्ते पर गिर जाए या एक्सीडेंट हो जाए, तो लोग मदद की बजाय वीडियो बनाते हैं, फोटो खींचते हैं — यह आधुनिक समाज का आईना है। वहीं गाँवों में अब भी लोग बिना सोचे-समझे मदद को दौड़ पड़ते हैं, चाहे उन्हें खुद की चिंता हो या नहीं।

शहरों को गाँवों से बहुत कुछ सीखना चाहिए — खासकर इंसानियत, अपनापन और साथ निभाने की ताकत। क्योंकि असली ज़िंदगी वही है जहाँ रिश्ते दिल से निभाए जाते हैं, ना कि सिर्फ मोबाइल स्क्रीन पर।


संपादक: गोपाल गावंडे

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