देवास नगरी आज भी आस्था और श्रद्धा का जीवंत प्रतीक है
यहाँ तीनों माताएँ – माँ चामुंडा, माँ तुलजा भवानी और माँ कालिका – पर्वत शिखरों पर विराजमान हैं। यही कारण है कि इस नगर का नाम पड़ा देवास, अर्थात् देवों का वास।*
राजेश धाकड़
देवास की माताएँ केवल नगर की आराध्य नहीं, बल्कि करोड़ों भक्तों की आस्था का केंद्र हैं। मान्यता है कि यहाँ जो भी सच्चे मन से माँ के दरबार में आता है, उसकी मनोकामनाएँ अवश्य पूर्ण होती हैं।
विशेष परंपराएँ और मान्यताएँ
देवास माता के मंदिर में कई चमत्कारी परंपराएँ प्रचलित हैं।
जिन दंपतियों को संतान नहीं होती, वे माता के मुख में पाँच पान का बीड़ा अर्पित करते हैं। मान्यता है कि यह बीड़ा स्त्री की झोली में गिरता है और संतान प्राप्ति का आशीर्वाद मिलता है।
यहाँ उल्टे स्वास्तिक बनाए जाते हैं और जब मन्नत पूरी हो जाती है, तो भक्तजन स्वास्तिक को सीधे कर आभार व्यक्त करते हैं।
माँ दिन में तीन स्वरूप धारण करती हैं – प्रातः बाल्यावस्था, दोपहर में युवा अवस्था और सायंकाल वृद्धा अवस्था।
भक्तजन यहाँ खाली झोली लेकर आते हैं और जाते समय भरी हुई झोली लेकर लौटते हैं।
नवरात्रि का अलौकिक माहौल
हर साल नवरात्रि में यहाँ का वातावरण अद्भुत और भक्ति से परिपूर्ण हो उठता है।
घंटियों की गूंज, ढोल-नगाड़ों की थाप और लाखों श्रद्धालुओं की जयकारे पूरे शहर को माँ की भक्ति में सराबोर कर देते हैं। इस समय देवास का पर्वतमाला क्षेत्र दीपमालिका और सजावट से अलौकिक प्रतीत होता है।
ऐतिहासिक महत्व
देवास का इतिहास भी उतना ही अनोखा है। कहा जाता है कि यह देश का पहला ऐसा नगर है जहाँ एक साथ दो राजाओं ने शासन किया। यहीं से देवास की पहचान सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से और भी समृद्ध हुई।
आस्था का केंद्र
आज भी श्रद्धालु मानते हैं कि देवास माता के दरबार में सच्चे मन से की गई प्रार्थना कभी व्यर्थ नहीं जाती। यही कारण है कि माँ का यह धाम न केवल मध्यप्रदेश, बल्कि पूरे भारतवर्ष में आस्था का प्रमुख केंद्र बन चुका है।

