"दान में भी हो विवेक — जब युधिष्ठिर को दान के अहंकार का बोध हुआ"

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आज का प्रेरक प्रसंग


राजेश धाकड़
महाराज युधिष्ठिर धर्मराज के रूप में विख्यात थे। उनका यह दृढ़ संकल्प था कि वे अपनी प्रजा को सदा दान देते रहें। उनके पास एक अक्षय पात्र था, जो जो कुछ भी माँगा जाता, तत्काल प्रदान कर देता। युधिष्ठिर अपने दान के बल पर शिवि, दधीचि और हरिश्चंद्र जैसे महान दानवीरों को भी पीछे छोड़ देना चाहते थे।
उनके राजप्रासाद में प्रतिदिन सोलह हजार आठ ब्राह्मण भोजन करते और उन्हें विभिन्न प्रकार का दान भी दिया जाता। यह क्रम निरंतर चलता रहा — परन्तु दान के इस उत्सव में एक सूक्ष्म अहंकार भी जन्म ले चुका था।
यह बात भगवान श्रीकृष्ण से छिपी नहीं रही। उन्होंने युधिष्ठिर को पाताल लोक ले जाकर असुरराज बलि से भेंट कराई। बलि ने आदरपूर्वक स्वागत किया। श्रीकृष्ण ने बलि से पूछा, “क्या आप इन्हें जानते हैं?” बलि ने विनम्रता से कहा, “नहीं प्रभु, मैं पूर्व से इनसे परिचित नहीं हूँ।”
श्रीकृष्ण बोले, “ये पांडवों में ज्येष्ठ हैं, और दानवीर युधिष्ठिर के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके दान से पृथ्वी का कोई भी व्यक्ति वंचित नहीं है, किन्तु आज लोग आपको (बलि को) भूल गए हैं।”
बलि मुस्कराए और बोले, “प्रभु, यह तो कालचक्र की विशेषता है — अतीत धुंधला पड़ जाता है और वर्तमान ही पूजनीय हो जाता है। मुझे प्रसन्नता है कि धर्मराज युधिष्ठिर के पुण्य कार्यों ने मेरी कथा को पीछे कर दिया है।”
तब श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर के अक्षय पात्र का उल्लेख करते हुए बताया कि वे प्रतिदिन हजारों ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं। इस पर बलि चौंके और बोले,
“यदि यह दान है, तो पाप क्या है?
हे धर्मराज! आप अपने दान से ब्राह्मणों को कर्महीन बना रहे हैं। क्या आपकी प्रजा को अब यज्ञ, अध्ययन-अध्यापन, अग्निहोत्र आदि की कोई आवश्यकता नहीं? केवल जयकार सुनने के लिए दान देना — यह दान नहीं, दोष है।”
बलि ने आगे कहा, “मेरे राज्य में ब्राह्मण कर्मयोगी हैं, वे बिना परिश्रम के दान स्वीकार नहीं करते। कोई भी याचक अगर त्रिलोकपति भी बन जाए, तब भी वह प्रतिदिन मुँह खोलकर भोजन मांगने नहीं आएगा। कर्महीनता को बढ़ावा देना पुण्य नहीं, पतन है।”
यह सुनकर युधिष्ठिर स्तब्ध रह गए। उन्हें अपने दान में छिपे अहंकार और उसकी सामाजिक हानि का बोध हो गया। उन्होंने सिर झुकाकर मौन स्वीकारोक्ति दी।
शिक्षा: दान का उद्देश्य आत्मप्रदर्शन नहीं, परोपकार होना चाहिए। जब दान पुरुषार्थ और कर्म को कुंठित करे, तो वह पुण्य नहीं, पाप बन जाता है।
जय श्रीकृष्ण।

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