विश्व पर्यावरण दिवस 2025: विकास की दौड़ में खोती प्रकृति
गोपाल गावंडे की विशेष कलम से
हर साल 5 जून को हम विश्व पर्यावरण दिवस मनाते हैं। लेकिन क्या यह केवल एक रस्म बनकर रह गया है?
क्या हम वाकई पर्यावरण को बचाने के लिए संकल्पित हैं या फिर विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति को कुचलते जा रहे हैं?
विकास की कीमत: पेड़ों की आहुति
आज हम ऊँची इमारतों, चौड़ी सड़कों और चमकते शहरों के लिए हजारों-लाखों साल पुराने पेड़ों को काट रहे हैं।
जंगलों की जगह अब कॉलोनियाँ बन चुकी हैं, खेतों की जगह कंक्रीट की छतें उग आई हैं।
हरियाली गायब हो रही है और उसका असर अब हमारी आँखों के सामने है—सूखा, बाढ़, भीषण गर्मी और जल संकट।
जल संकट: भविष्य की सबसे बड़ी लड़ाई
देश के कई शहरों में ज़मीन का जल स्तर खतरनाक रूप से गिर चुका है।
जल स्रोत या तो सूख गए हैं या प्रदूषण से भर चुके हैं।
"पानी बचाओ" अब नारा नहीं, बल्कि अस्तित्व की आवश्यकता बन गया है।
प्रदूषण और प्रकृति का पलटवार
चारों ओर निर्माण, कचरा, ध्वनि और रासायनिक प्रदूषण ने वायु और जल को विषैला बना दिया है।
प्राकृतिक आपदाएँ बार-बार दस्तक दे रही हैं—यह प्रकृति का बदला नहीं, चेतावनी है।
वन्य जीवन संकट में
जंगल उजड़ने से जानवरों का बसेरा छिन रहा है।
अब तेंदुए, हाथी, भालू, बंदर आदि शहरी इलाकों में दिखने लगे हैं क्योंकि उनके रहने की जगह हमने छीन ली है।
समाधान क्या है?
हर व्यक्ति एक पेड़ लगाए
प्लास्टिक का प्रयोग छोड़े
जल और ऊर्जा संरक्षण को प्राथमिकता दे
बच्चों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाए
कृषि भूमि की रक्षा करें, हरियाली बढ़ाएं
निष्कर्ष: अब भी समय है
अगर अब नहीं जागे, तो अगली पीढ़ी को केवल तस्वीरों में हरियाली दिखेगी।
विकास जरूरी है, लेकिन विनाश नहीं।
हमें ऐसी योजनाएँ बनानी होंगी जो प्रकृति और प्रगति दोनों को साथ लेकर चलें।
आइए इस पर्यावरण दिवस पर संकल्प लें:
"एक पेड़ लगाएँ – एक जीवन बचाएँ। प्रकृति के साथ चलें – भविष्य सुरक्षित करें।"